डियर जिंदगी : खुद के कितने पास हैं, हम!
हमारे बच्चों का मनोविज्ञान बड़ों की पकड़ से हर दिन दूर होता जा रहा है. ऐसा लगता है, मानो पेड़ धीरे-धीरे जड़ से ही दूर हो रहा है. दयाशंकर मिश्र | Updated: Mar 30, 2018, 08:01 AM IST सुनने में बात थोड़ी अटपटी लग सकती है. इसमें नया क्या है. सब अपने से प्रेम करते हैं. कुछ तो अपने से प्रेम में डूबे रहते हैं. लेकिन ज़रा ठहकर सोचिए. अब यह बातें कुछ पुरानी सी लगने लगी हैं. हमारे विचार, चिंतन शैली पर सुकून से अधिक बाज़ार/ज़रूरतें हावी होती जा रही हैं. आप अपने किसी भी नज़दीकी को सैंपल के तौर पर चुन लीजिए. बहुत नहीं उनसे केवल तीन-तीन महीने के अंतर पर बात करते रहिए. आप आसानी से समझ जाएंगे कि उनकी चिंतन प्रक्रिया का केंद्र निरंतर बदल रहा है. इस बदलाव में उनका अंतर्मन कहीं नहीं है. जीवन की गुणवत्ता कहीं नहीं है. सारा ज़ोर बस इस बात पर दिखेगा कि मेरे पास क्या है? हमारे बच्चों का मनोविज्ञान बड़ों की पकड़ से हर दिन दूर होता जा रहा है. ऐसा लगता है, मानो पेड़ धीरे-धीरे जड़ से ही दूर हो रहा है. हमारे एक मित्र हैं. दूसरों से ख़ूब बातें करते हैं. बेइंतहा बातें. बातें ही बातें....
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